सामान्य ज्योतिषीय फलित सिद्धांत
जिस प्रकार गणित के विद्यार्थी को गणित के पूर्ण अध्ययन के लिए एक से लेकर नौ तक की संख्या, शून्य और उसके प्रयोग, स्थानीयमान आदि की पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है, उसी प्रकार ज्योतिषीय फलकथन को प्रामाणिक रूप से निकालने के लिए बुनियादी सिद्धांतो को याद रखने की आवश्यकता होती है। यदि इन सिद्धांतो को ध्यान में रखकर किसी जन्मपत्रिका के फल का प्रतिपादन किया जाए तो वह निश्चित रूप से सटीक होगा।
1) लग्न भाव का स्वामी अर्थात लग्नेश किसी भी भाव में, किसी भी राशि में हो, वह अशुभ फल नहीं देगा। लग्नेश की अशुभता होने पर मन के अनुकूल भले ही फल प्राप्त न हो किन्तु जातक के लिए हानिकारक फल नहीं होंगे।
2) छ्टे, आठवें और बारहवें भाव के स्वामी यदि अशुभ ग्रह हो तो जन्मपत्रिका में जिस भाव में होंगे उस भाव के फलों का नाश ही करेंगे। जबकि इन भावो के स्वामी शुभ ग्रह हो तो शुभ फलों की मात्रा में कमी होगी।
3) केंद्र और त्रिकोण के स्वामी जन्मपत्रिका में जिस भाव में बैठेंगे उसके फलों को शुभत्व प्रदान करेंगे। यही फल उनकी दृष्टि होने पर भी होगा।
4) किसी भी जन्मपत्रिका में गुरु और केतु छठे भाव में होने पर जातक के रोग और शत्रुओं का नाश करते है, जबकि शनि छठे और आठवें भाव में होने पर जातक के आयु में वृद्धि करते है।
5) किसी भी जन्मपत्रिका में पापी ग्रहो का तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में होना जातक के लिए शुभ होता है। क्योंकि तीसरे भाव में स्थित पापी ग्रह जातक को पराक्रमी बनाते है, वहीं छठे भाव में स्थित ग्रह जातक के रोग और शत्रुओ का नाश करते है, इसी प्रकार ग्यारहवें भाव में स्थित ग्रह जातक को धन प्राप्त करवाते है।
6) दूसरे और बारहवें भाव में तीन या तीन से अधिक ग्रह होने पर जातक का जीवन किसी भी परीक्षा से कम नही होता है। अतः उसे कठोर परिश्रम के बाद अल्प लाभ होता है। जातक के लिए भौतिक सुख दिवास्वप्न बन जाते है, जबकि उसे ख्याति अवश्य प्राप्त होती है।
7) किसी भी भाव का स्वामी लग्न से, चन्द्र से और स्वयं अपने भाव से यदि केंद्र या त्रिकोण में हो तो शुभ फल प्रदान करता है। जबकि इन तीनो से ही केंद्र या त्रिकोण में न होने पर अशुभ फल प्रदान करता है। फल की मात्रा तीनो के आधार पर नहीं बल्कि भिन्न भिन्न भी जानी जा सकती है। अर्थात मात्र अपने भाव से केंद्र या त्रिकोण में हो तो वह अच्छा फल प्रदान करेगा, यदि तीनो से ही केंद्र या त्रिकोण में हो तो वह सर्वाधिक शुभ फल प्रदान करेगा।
8) शनि और राहू जिस भाव में होते है उस भाव के फल सदा विलम्ब से प्राप्त होते है। जैसे सातवें भाव में दोनों में से कोई ग्रह हो तो विवाह विलम्ब से होता है। इसीप्रकार पाँचवे भाव में हो तो संतान विलम्ब से होती है। इसीप्रकार अन्य भाव का फल समझना चाहिये।
9) यदि एक अशुभ स्थान का स्वामी दूसरे अशुभ स्थान में हो तो वह अशुभ फल नही देते। किन्तु ऐसा आयु में भाग्योदय के बाद ही होता है।
10) यदि कोई शुभ ग्रह वक्री होकर अशुभ स्थान में उच्च का होकर बैठ जाए तो वह शुभ ग्रह नीच स्थिति का फल देगा।
11)दशम भाव में जिस भाव का स्वामी हो, जातक का भाग्य उसी भाव से सम्बंधित व्यक्ति या उस भाव के कारकत्व के कार्य को अपनाने पर चमकता है। जैसे दशम भाव में तीसरे भाव का स्वामी बैठा हो तो जातक के भाग्योदय में या तो भाई का या स्वयं के पराक्रम का योगदान होगा। तीसरा भाव जातक के भाई-बहन, पराक्रम और शारीरिक अंगो में कान व भुजा से सम्बंधित होता है, अतः इन दोनों अंगो के लिए लाभदायक पदार्थों का व्यापार करने पर जीवन में कभी भी हानि नहीं उठानी पड़ेगी। इसीप्रकार यदि पंचम भाव का स्वामी दशम भाव में हो तो जातक को मनोरंजन के पदार्थों से अधिक लाभ होगा, और उसके भाग्योदय में उसकी प्रेमिका या संतान का महत्वपूर्ण योगदान होगा। इसीप्रकार अन्य भावो को भी समझना चाहिये।
12) कहने को तो उच्च ग्रह सर्वाधिक शुभ फल देते है, किन्तु उनकी दृष्टि नीच भाव पर भी होती है जिसका वे नाश करते है। अतः जीवन के लिए जितने शुभ उच्च ग्रह होते है उतने ही वे हानिकारक भी होते है।
13) जन्मपत्रिका के जिस भाव में कोई भी ग्रह न हो, या ग्रह तो हो लेकिन उस पर किसी अन्य ग्रह की कोई दृष्टि न हो तो वह भाव या ग्रह सुप्त अवस्था में माना जाता है, जिसका पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता है।
14) मिथुन, कन्या, धनु और मीन लग्न के जन्मपत्रिका में बुध और गुरु केंद्राधिपत्य दोष से दूषित होते है अतः इस स्थिति में इन दोनों ग्रहो से शुभ फल के आशा करना व्यर्थ होता है। यद्यपि लग्नेश होने पर ये अशुभ फल नहीं देते है।
15) जिस जन्मपत्रिका में जितने अधिक ग्रह उच्च, स्वराशि या मित्र राशियो में होते है जातक को उतना ही अधिक सुख देते है। इसके विपरीत जितने अधिक ग्रह नीच या शत्रु राशियों में होते है वे जातक को उतना ही अधिक संघर्षपूर्ण जीवन देते है।
16) राहु या केतु की अपनी कोई राशि नहीं होती है. अतः ये जिस राशि में होते है उसके स्वामी के समान फल देते है और जिस ग्रह के साथ होते है उस ग्रह के गुणों को ग्रहण कर लेते है।
17) किसी भी प्रकार का शुभ या अशुभ ग्रह, स्वराशि, मित्रराशि या उच्च राशि में जन्मपत्रिका में किसी भी भाव में हों, वे सदा शुभ फल ही देंगे। किन्तु अपने नैसर्गिक लक्षणों के अनुरूप ही फल देंगे। जैसे कि शनि मंदगति व् मति भ्रम का कारक है। अतः अपनी स्वराशि, मित्रराशि या उच्च राशि में होने पर शुभ फल तो देगा परन्तु अत्यंत धीमी गति से जातक को मति भ्रम कर कितने ही समय तक भटकाने के बाद। इसीप्रकार अन्य ग्रहो का फल समझे।
18) जब कोई ग्रह एक शुभ और एक अशुभ भाव का स्वामी हो तो उसका फल माध्यम हो जाता है। यदि उस ग्रह के साथ कोई शुभ ग्रह हो तो उसमे शुभत्व की मात्रा बढ़ जाती है। साथ ही ऐसी दशा में शुभ ग्रह, शुभ ग्रह की राशि या शुभ ग्रह के भाव में हो तो उसके शुभ फल अधिक प्राप्त होते है। इसके विपरीत अशुभ भाव या राशि में ऐसा ग्रह हो तो अशुभ फल अधिक मात्रा में प्राप्त होते है। जैसे मिथुन लग्न की जन्मपत्रिका में शनि अष्टम और नवम अर्थात एक घोर अशुभ और एक सर्वाधिक शुभ त्रिकोण का स्वामी होता है। ऐसी दशा में शनि यदि केंद्र या त्रिकोण (1, 4, 5, 7, 9, 10) भाव में हो तो जातक को शुभ फल प्राप्त होंगे अन्यथा नहीं।
19) किसी भी जातक की जन्मपत्रिका में लग्नेश की महादशा कभी भी अशुभ फल नहीं देती।
20) किसी भी जातक की जन्मपत्रिका में सूर्य ग्रह और चन्द्र ग्रह चाहे किसी भी भाव में और किसी भी राशि में बैठे हो, कभी भी वे मारक नहीं होते।
21) किसी भी जातक की जन्मपत्रिका में सप्तमेश यदि द्वादश भाव में बैठा हो तो जातक को वैवाहिक सुख या तो होता ही नहीं या न्यून सुख होता है।
जिस प्रकार गणित के विद्यार्थी को गणित के पूर्ण अध्ययन के लिए एक से लेकर नौ तक की संख्या, शून्य और उसके प्रयोग, स्थानीयमान आदि की पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है, उसी प्रकार ज्योतिषीय फलकथन को प्रामाणिक रूप से निकालने के लिए बुनियादी सिद्धांतो को याद रखने की आवश्यकता होती है। यदि इन सिद्धांतो को ध्यान में रखकर किसी जन्मपत्रिका के फल का प्रतिपादन किया जाए तो वह निश्चित रूप से सटीक होगा।
1) लग्न भाव का स्वामी अर्थात लग्नेश किसी भी भाव में, किसी भी राशि में हो, वह अशुभ फल नहीं देगा। लग्नेश की अशुभता होने पर मन के अनुकूल भले ही फल प्राप्त न हो किन्तु जातक के लिए हानिकारक फल नहीं होंगे।
2) छ्टे, आठवें और बारहवें भाव के स्वामी यदि अशुभ ग्रह हो तो जन्मपत्रिका में जिस भाव में होंगे उस भाव के फलों का नाश ही करेंगे। जबकि इन भावो के स्वामी शुभ ग्रह हो तो शुभ फलों की मात्रा में कमी होगी।
3) केंद्र और त्रिकोण के स्वामी जन्मपत्रिका में जिस भाव में बैठेंगे उसके फलों को शुभत्व प्रदान करेंगे। यही फल उनकी दृष्टि होने पर भी होगा।
4) किसी भी जन्मपत्रिका में गुरु और केतु छठे भाव में होने पर जातक के रोग और शत्रुओं का नाश करते है, जबकि शनि छठे और आठवें भाव में होने पर जातक के आयु में वृद्धि करते है।
5) किसी भी जन्मपत्रिका में पापी ग्रहो का तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में होना जातक के लिए शुभ होता है। क्योंकि तीसरे भाव में स्थित पापी ग्रह जातक को पराक्रमी बनाते है, वहीं छठे भाव में स्थित ग्रह जातक के रोग और शत्रुओ का नाश करते है, इसी प्रकार ग्यारहवें भाव में स्थित ग्रह जातक को धन प्राप्त करवाते है।
6) दूसरे और बारहवें भाव में तीन या तीन से अधिक ग्रह होने पर जातक का जीवन किसी भी परीक्षा से कम नही होता है। अतः उसे कठोर परिश्रम के बाद अल्प लाभ होता है। जातक के लिए भौतिक सुख दिवास्वप्न बन जाते है, जबकि उसे ख्याति अवश्य प्राप्त होती है।
7) किसी भी भाव का स्वामी लग्न से, चन्द्र से और स्वयं अपने भाव से यदि केंद्र या त्रिकोण में हो तो शुभ फल प्रदान करता है। जबकि इन तीनो से ही केंद्र या त्रिकोण में न होने पर अशुभ फल प्रदान करता है। फल की मात्रा तीनो के आधार पर नहीं बल्कि भिन्न भिन्न भी जानी जा सकती है। अर्थात मात्र अपने भाव से केंद्र या त्रिकोण में हो तो वह अच्छा फल प्रदान करेगा, यदि तीनो से ही केंद्र या त्रिकोण में हो तो वह सर्वाधिक शुभ फल प्रदान करेगा।
8) शनि और राहू जिस भाव में होते है उस भाव के फल सदा विलम्ब से प्राप्त होते है। जैसे सातवें भाव में दोनों में से कोई ग्रह हो तो विवाह विलम्ब से होता है। इसीप्रकार पाँचवे भाव में हो तो संतान विलम्ब से होती है। इसीप्रकार अन्य भाव का फल समझना चाहिये।
9) यदि एक अशुभ स्थान का स्वामी दूसरे अशुभ स्थान में हो तो वह अशुभ फल नही देते। किन्तु ऐसा आयु में भाग्योदय के बाद ही होता है।
10) यदि कोई शुभ ग्रह वक्री होकर अशुभ स्थान में उच्च का होकर बैठ जाए तो वह शुभ ग्रह नीच स्थिति का फल देगा।
11)दशम भाव में जिस भाव का स्वामी हो, जातक का भाग्य उसी भाव से सम्बंधित व्यक्ति या उस भाव के कारकत्व के कार्य को अपनाने पर चमकता है। जैसे दशम भाव में तीसरे भाव का स्वामी बैठा हो तो जातक के भाग्योदय में या तो भाई का या स्वयं के पराक्रम का योगदान होगा। तीसरा भाव जातक के भाई-बहन, पराक्रम और शारीरिक अंगो में कान व भुजा से सम्बंधित होता है, अतः इन दोनों अंगो के लिए लाभदायक पदार्थों का व्यापार करने पर जीवन में कभी भी हानि नहीं उठानी पड़ेगी। इसीप्रकार यदि पंचम भाव का स्वामी दशम भाव में हो तो जातक को मनोरंजन के पदार्थों से अधिक लाभ होगा, और उसके भाग्योदय में उसकी प्रेमिका या संतान का महत्वपूर्ण योगदान होगा। इसीप्रकार अन्य भावो को भी समझना चाहिये।
12) कहने को तो उच्च ग्रह सर्वाधिक शुभ फल देते है, किन्तु उनकी दृष्टि नीच भाव पर भी होती है जिसका वे नाश करते है। अतः जीवन के लिए जितने शुभ उच्च ग्रह होते है उतने ही वे हानिकारक भी होते है।
13) जन्मपत्रिका के जिस भाव में कोई भी ग्रह न हो, या ग्रह तो हो लेकिन उस पर किसी अन्य ग्रह की कोई दृष्टि न हो तो वह भाव या ग्रह सुप्त अवस्था में माना जाता है, जिसका पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता है।
14) मिथुन, कन्या, धनु और मीन लग्न के जन्मपत्रिका में बुध और गुरु केंद्राधिपत्य दोष से दूषित होते है अतः इस स्थिति में इन दोनों ग्रहो से शुभ फल के आशा करना व्यर्थ होता है। यद्यपि लग्नेश होने पर ये अशुभ फल नहीं देते है।
15) जिस जन्मपत्रिका में जितने अधिक ग्रह उच्च, स्वराशि या मित्र राशियो में होते है जातक को उतना ही अधिक सुख देते है। इसके विपरीत जितने अधिक ग्रह नीच या शत्रु राशियों में होते है वे जातक को उतना ही अधिक संघर्षपूर्ण जीवन देते है।
16) राहु या केतु की अपनी कोई राशि नहीं होती है. अतः ये जिस राशि में होते है उसके स्वामी के समान फल देते है और जिस ग्रह के साथ होते है उस ग्रह के गुणों को ग्रहण कर लेते है।
17) किसी भी प्रकार का शुभ या अशुभ ग्रह, स्वराशि, मित्रराशि या उच्च राशि में जन्मपत्रिका में किसी भी भाव में हों, वे सदा शुभ फल ही देंगे। किन्तु अपने नैसर्गिक लक्षणों के अनुरूप ही फल देंगे। जैसे कि शनि मंदगति व् मति भ्रम का कारक है। अतः अपनी स्वराशि, मित्रराशि या उच्च राशि में होने पर शुभ फल तो देगा परन्तु अत्यंत धीमी गति से जातक को मति भ्रम कर कितने ही समय तक भटकाने के बाद। इसीप्रकार अन्य ग्रहो का फल समझे।
18) जब कोई ग्रह एक शुभ और एक अशुभ भाव का स्वामी हो तो उसका फल माध्यम हो जाता है। यदि उस ग्रह के साथ कोई शुभ ग्रह हो तो उसमे शुभत्व की मात्रा बढ़ जाती है। साथ ही ऐसी दशा में शुभ ग्रह, शुभ ग्रह की राशि या शुभ ग्रह के भाव में हो तो उसके शुभ फल अधिक प्राप्त होते है। इसके विपरीत अशुभ भाव या राशि में ऐसा ग्रह हो तो अशुभ फल अधिक मात्रा में प्राप्त होते है। जैसे मिथुन लग्न की जन्मपत्रिका में शनि अष्टम और नवम अर्थात एक घोर अशुभ और एक सर्वाधिक शुभ त्रिकोण का स्वामी होता है। ऐसी दशा में शनि यदि केंद्र या त्रिकोण (1, 4, 5, 7, 9, 10) भाव में हो तो जातक को शुभ फल प्राप्त होंगे अन्यथा नहीं।
19) किसी भी जातक की जन्मपत्रिका में लग्नेश की महादशा कभी भी अशुभ फल नहीं देती।
20) किसी भी जातक की जन्मपत्रिका में सूर्य ग्रह और चन्द्र ग्रह चाहे किसी भी भाव में और किसी भी राशि में बैठे हो, कभी भी वे मारक नहीं होते।
21) किसी भी जातक की जन्मपत्रिका में सप्तमेश यदि द्वादश भाव में बैठा हो तो जातक को वैवाहिक सुख या तो होता ही नहीं या न्यून सुख होता है।
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